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शिलान्यास दर शिलान्यास, विस्थापन की आशंका और एक बड़ा आर्थिक घोटाला, ये तमाम पहलू अपने में समेटे हुए है सोनभद्र जिले में प्रस्तावित कनहर बांध परियोजना
2014-12-15 , Issue 23 Volume 6

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कई बार सच्चाईकहानियों से ज्यादा फैंटेसी समेटे होती है. कनहर बांध परियोजना भी ऐसी ही सच्चाई है. इस सच्चाई के एक छोर पर अधर में लटकी एक बांध परियोजना है और दूसरे छोर पर एक लाख के करीब आदिवासी ग्रामीण आबादी है. यह बांध परियोजना उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले में बहने वाली कनहर नदी पर प्रस्तावित है. आज नए सिरे से यह परियोजना गांव, जंगल और पहाड़ के लिए डूब का संदेश लेकर आई है.

कनहर सोन की सहायक नदी है. सोनभद्र जिला उत्तर प्रदेश का सबसे बड़ा जिला है, इसका क्षेत्रफल 6788 वर्ग किलोमीटर है जिसका 3792.86 वर्ग किलोमीटर इलाका जंगल से घिरा है. सोनभद्र की सीमाएं उत्तर पूर्व में बिहार से, पूर्व में झारखंड से, दक्षिण में छत्तीसगढ़ और पश्चिम में मध्यप्रदेश तथा उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर तथा चंदौली जिलों से मिलती है. सोनभद्र  की 70 फीसदी आबादी आदिवासी है जिसमें गोंड, करवार, पन्निका, भुईयां, बइगा, चेरों, घासिया, धरकार और धौनार आते हैं. अधिकतर ग्रामीण आदिवासी अपनी जीविका के लिए जंगलों पर निर्भर हैं, वे जंगल से तेंदूपत्ता, शहद, सूखी लकड़ियां और जड़ी-बूटियां इकट्ठा कर उन्हें बाजार में बेचते हैं. कुछ के पास छोटी जोतें भी हैं जो ज्यादातर चावल और कभी-कभी सब्जियां पैदा करते हैं. इस इलाके में रहने वाले बहुत से आदिवासियों को रिजर्व फॉरेस्ट एक्ट के अनुच्छेद 4 तथा अनुच्छेद 20 ने उनकी जमीन और वनाधिकार से वंचित कर रखा है. रिजर्व फॉरेस्ट एक्ट की वजह से बहुत से लोगों पर फर्जी मुकदमे लाद दिए गए हैं. यह कहानी एक अलग रिपोर्ट की मांग करती है.

सोनभद्र जिला भारत के विकास के उस मॉडल का शिकार है जिसे आजादी के बाद अपनाया गया. पूरा सोनभद्र औद्योगिक प्रदूषण और विस्थापन की मार से दो-चार है. अध्ययन बताते हैं कि सोनभद्र का पानी जहरीला हो चुका है और हवा प्रदूषित. इसी सोनभद्र में विस्थापन की एक नई कहानी लिखने की तैयारी कर रहा है कनहर बांध. कनहर बहुद्देशीय परियोजना की कहानी शुरू होती है छह जनवरी 1976 से जब उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने इस परियोजना का शिलान्यास किया था. कनहर नदी पर बनने वाली इस परियोजना का असर उत्तर प्रदेश के सोनभद्र, छत्तीसगढ़ के सरगुजा और झारखंड के गढ़वा जिले पर पड़ना था. एक अनुमान के मुताबिक तैयार होने के बाद इसका जलक्षेत्र 2000 वर्ग किलोमीटर का होगा और तीन राज्यों के करीब 80 गांव इसके प्रभाव क्षेत्र में आएंगे. इसी अनुमान के मुताबिक तकरीबन एक लाख ग्रामीण-आदिवासी आबादी हमेशा के लिए अपनी पुश्तैनी जमीनों से उजड़ जाएगी.

कनहर बहुद्देशीय परियोजना को सितंबर 1976 में केंद्रीय जल आयोग की अनुमति मिली और इसकी प्रारंभिक अनुमानित लागत 27 करोड़ रुपये आंकी गई. 1979 में इसे 55 करोड़ रुपये के साथ नए सिरे से तकनीकी अनुमति मिली. मध्य प्रदेश (अब छत्तीसगढ), बिहार और उत्तर प्रदेश के बीच पानी और डूब क्षेत्र को लेकर चलने वाले विवाद को नजरंदाज करके परियोजना को अनुमति दी गई और अंततः उसकी लागत 69 करोड़ रुपये बताई गई. तीनों ही प्रदेशों के पर्यावरण मंत्रालयों ने इस इलाके में होने वाले भयानक नुकसान की आशंका को नजरंदाज किया और कोई भी ऐसा विस्तृत सर्वेक्षण नहीं किया जो परियोजना द्वारा पर्यावरण और आबादी पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों का ठीक-ठाक आकलन करता हो. एक शुरुआती अध्ययन के अनुसार यह अनुमान लगाया गया कि तकरीबन एक लाख पेड़, 2500 कच्चे घर, 200 पक्के घर, 500 कुएं, करीब 30 स्कूल और कुछ अन्य इमारतें डूब क्षेत्र में आएंगी. आज यह आकंड़े और बढ़ गए होंगे. इस बांध परियोजना से होने वाले विस्थापन के विरुद्ध शुरू हुए कनहर बचाओ आंदोलन के सक्रिय आदिवासी नेता विश्वनाथ खरवार बताते हैं कि परियोजना के शिलान्यास के बाद एक एकड़ का 22 सौ रुपये की दर से मुआवजा दिया गया था. लेकिन जैसा कि दावा किया गया था जमीन के बदले जमीन किसी को नहीं दी गई. परियोजना पर जो भी थोड़ा बहुत काम हुआ उसमें बाहर से मजदूर बुलाए गए और स्थानीय लोगों को मजदूर के लायक भी नहीं समझा गया.

कनहर बहुद्देशीय परियोजना को सितंबर 1976 में केंद्रीय जल आयोग की अनुमति मिली और इसकी प्रारंभिक अनुमानित लागत 27 करोड़ रुपये आंकी गई

1976 में पहले शिलान्यास के बाद साल दर साल कनहर की कहानी नाटकीय होती गई. नियमित अंतराल के बाद काम शुरू होता, फिर बंद हो जाता. यहां कभी भी लगातार काम नहीं चला. सिंचाई विभाग और लोक निर्माण विभाग के दस्तावेज देखने पर पता चलता है कि पैसे का खर्च लगातार दिखाया जाता रहा. 1984 में काम रुक गया और सूत्र यह बताते हैं कि उसका पैसा दिल्ली में होने वाले एशियाई खेलों की तरफ स्थानांतरित कर दिया गया. 1989 में पुन: काम शुरू हुआ और 16 परिवार उजाड़ दिए गए. इसके बाद दो दशक से ज्यादा या तो काम बंद रहा या छिटपुट कामकाज होता रहा. कनहर बांध की साइट पर जाकर देखा जा सकता है कि करोड़ों रुपये के यंत्र यूं ही धूप-धूल और मिट्टी में बर्बाद हो रहे हैं. लेकिन इस नाटक में कई और मोड़ आने बाकी थे. इस रुकी हुई परियोजना के लिए एक नया शिलान्यास उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने 15 जनवरी 2011 को किया. काम फिर भी शुरू नहीं हो सका. कनहर बांध के स्पिल वे का निर्माण कार्य शुरू करने के लिए एक नया शिलान्यास सिंचाई एवं बाढ़ नियंत्रण मंत्री शिवपाल सिंह यादव द्वारा सात नवंबर 2012 को हुआ. शिलान्यास दर शिलान्यास चलता रहता है  लेकिन काम शुरू नहीं होता और गांव वालों के सिर पर तलवार हमेशा लटकती रहती है. बजट बनता है, पैसा खर्च होता है और लोग अर्ध विस्थापन में जीने को बाध्य रहते हैं.

इस हाल से तंग आकर ग्राम स्वराज समिति की पहलकदमी पर आदिवासी किसानों ने सन 2000 में कनहर बचाओ आंदोलन की शुरुआत की. इस आंदोलन का उद्देश्य था कनहर बांध से होने वाले पर्यावरण विनाश और विस्थापन के खिलाफ व्यापक जनगोलबंदी करना. कनहर बचाओ आंदोलन के जरिए ग्रामीण आदिवासियों ने कनहर बांध को नकार दिया. ग्राम स्वराज समिति के संयोजक वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता महेषानंद कहते हैं, ‘सन 1976 में शुरू की गई यह परियोजना 1984 में परित्यक्त कर दी गई. आज 30 साल बाद बिना किसी नई अनुमति या अध्ययन के उसे फिर से शुरू करने का क्या औचित्य है? यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि परियोजना के आरंभ होने से पहले सरकार ने अधिसूचना जारी कर भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू की थी किंतु 1984 में योजना के परित्यक्त हो जाने के बाद अधिग्रहण की प्रक्रिया स्वतः ही समाप्त हो जाती है.’

केवल इतना ही नहीं बल्कि अधिग्रहित जमीनों पर उसके मालिक ही काबिज रहे. वह इस जमीन पर खेती करते रहे और उसका कर्ज भरते रहे और कुछ लोगों ने इस जमीन के आधार पर कर्ज भी लिया. इस सबका रिकॉर्ड राजस्व विभाग की फाइलों में दर्ज है. यानी अधिग्रहण के बाद भी जमीन की मिल्कियत किसानों के पास ही रही. इस संबंध में यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि यदि भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया किसी कारण से समाप्त हो जाती है तो चाहे उस व्यक्ति ने मुआवजा ले भी रखा हो तो भी भूमि अधिग्रहण कानून 1894 की धारा 48 (3) के अंतर्गत ऐसे व्यक्ति की जो मानसिक व आर्थिक क्षति पहुंची है इसके लिए सरकार उसे मुआवजा देने के लिए बाध्य है. इन्हीं सब आधारों पर डूब क्षेत्र में आने वाली सोनभद्र की सभी ग्राम सभाओं ने कनहर बांध के विरोध में पहले ही प्रस्ताव पारित कर रखा है. इन सभी ग्राम सभाओं ने अपने प्रधानों के माध्यम से इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक याचिका (697043/2011) भी दायर कर रखी है.

कनहर बचाओ आंदोलन से जुड़े पीयूसीएल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एवं वरिष्ठ अधिवक्ता रवि किरन जैन कहते हैं, ‘कनहर बांध सिर्फ गैर कानूनी ही नहीं बल्कि असंवैधानिक भी है. 73वें संविधान संशोधन के बाद अब ग्राम सभाएं उतनी ही महत्वपूर्ण संस्थाएं बन गई हैं जितनी की संसद या विधानसभाएं हैं. यानी कनहर क्षेत्र में भूमि सुधार, खेती के विकास या सिंचाई से संबंधित योजनाएं अगर बननी हैं तो यह ग्राम सभाओं के अधिकार क्षेत्र में हैं. ये योजनाएं अब ग्राम सभाएं बनाएंगी न कि केंद्र या राज्य सरकार उन पर लादेंगी. वास्तविकता यह है कि प्रभावित होने वाले गांव की ग्राम सभाओं ने सर्वसम्मति से बांध को नकार दिया है. उत्तर प्रदेश सरकार को नियामगिरी के अनुभव से सबक लेना चाहिए.’ इस लिहाज से देखा जाय तो यह परियोजना गांव के संवैधानिक आधिकारों को चुनौती देना है. केवल इतना ही नहीं है इन क्षेत्रों में लगातार पंचायत चुनाव होते रहे हैं. पंचायतें निर्माण एवं विकास कार्य करती रही हैं और यहां मनरेगा जैसी योजनाएं भी लागू हैं.

इन स्थितियों को नजरअंदाज करके स्थानीय प्रशासन ने विधायक रुबी प्रसाद की अध्यक्षता में पुनर्वास एवं पुनर्स्थापना के मसले पर ग्रामीणों की सभा बुलाई. 16 जून 2014 को आयोजित इस सभा में हजारों लोग मौजूद थे. मंच पर आकर सभी ग्रामीण आदिवासियों ने कनहर बांध के विरोध में बात रखी. यहां वक्ताओं में वे ग्राम प्रधान भी मौजूद थे जिन्होंने बांध के विरोध में प्रस्ताव पारित कर रखा है. अंत में मुख्यमंत्री को संबोधित एक ज्ञापन भी प्रशासन को सौंपा गया, लेकिन जब इस सभा की कार्यवाही की रपट प्रधानों के पास पहुंची तो वे चकित रह गए. इसमें सिर्फ सरकारी अधिकारी एवं विधायक के वक्तव्य थे. जनता के विरोध को उसमें जगह ही नहीं दी गई थी. इससे पता चलता है कि प्रशासन एवं सरकार एक कृत्रिम सहमति बनाने की कोशिश कर रही है.

फिलहाल सोनभद्र में टकराव की स्थिति है. प्रशासन अभी कुछ कहना नहीं चाहता. कनहर बचाओ आंदोलन की ओर से कई जगह परियोजना प्रस्ताव की प्रतियां जलाने का कार्यक्रम प्रस्तावित किया गया है. कहनर बांध की कहानी जारी है. तीन शिलान्यास, करोड़ों रुपये, विस्थापन की आशंका और सोनभद्र का पहले से ही घबराया हुआ पर्यावरण अपनी जगह कायम है. वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता ओडी सिंह कहते हैं कि इस परियोजना की अगर कायदे से जांच हो तो एक बहुत बड़ा आर्थिक घोटाला सामने आ सकता है


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