मिर्ज़ापुर के जंगल अब अतिक्रमण के चलते बुरी तरह प्रभावित है। भालूओं के प्राकृतिक आवास और गलियारों पर वन्यजीव संस्था डब्लू डब्लू एफ की मदद से विंध्य बचाओ के द्वारा चलाये जा रहे एक शोध अभियान में कई चिंताजनक तथ्य सामने आये। सदस्यों ने मिर्ज़ापुर के ही पटेहरा, लालगंज, ड्रमंडगंज, हलिया एवं मड़िहान के जंगलों के आसपास गाँवों में जा कर एवम् वन अधिकारियों से जानकारी ली। आबादी के बढ़ते जहां कई जंगल काटकर घर और गाँव बस्ते जा रहे है वही लगभग हर जंगल के बाहरी हिस्सों में अतिक्रमण का दर बहुत तेज़ी से बढ़ता नज़र आया। पटेहरा वन क्षेत्र जो कभी घने जंगल हुआ करते थे, वहाँ वन भूमि के अंदर सैकडों बीघे खेती के इस्तेमाल में लाये जा चुके है। मौके पर मौजूद किसानों से जब विंध्य बचाओ के कार्यकर्ताओं ने पूछताछ की तो बताया गया कि खेती करने वाले हर साल बदल जाते है। मौके पर तैनात वन रक्षक लक्ष्मणजी ने बताया कि यह अवैध कब्जा किया हुआ वन भूमि है जिसपर कुछ बाहरी लोगों ने कब्जा कर लिया। फॉरेस्ट रेंजर जे.डी. त्यागी ने बताया कि पटेहरा वन का क्षेत्रफल बहुत बड़ा है और इसमें कई अनुसूचित प्रजाति के जीव जैसे भालू, बारासिंघा, काल हिरण, मगरमच्छ जैसे जंतुओं का प्राकृतिक वास है, परंतु वन रक्षकों की संख्या ज़रूरत से बहुत कम है जिसकी वजह से इन जंगलों के रखरखाव में बहुत
मुश्किलों का सामना करना पड़ता है और अतिक्रमण को रोकना संभव नही हो पा रहा।
विंध्य बचाओ के सदस्य शिव कुमार उपाध्यायजी ने बताया कि जंगलों का सफाया बहुत ही चालाकी से की जा रही है और इसमें सबसे पहले पेड़ों को कुल्हाड़ी के चोट से क्षतिग्रस्त किया जाता है जिससे कुछ दिनों में ही पेड़ सूखने लगते है। कुछ जगहों पर तो असामाजिक तत्वों द्वारा जंगलों में आग भी लगाया जा रहा है। उन्होंने बताया कि बेलन नदी की घाटी अपने आप में ऐतिहासिक रही है और इन प्राचीन प्राकृतिक स्थानों का संरक्षण करने के लिए ठोस कदम न उठाया गया तो उत्तर प्रदेश के प्राकृतिक इतिहास का एक अनमोल धरोहर स्माप्तहो जाएगा।
वन विभाग के आंकडों से ये पता चला कि लालगंज वन प्रभाग से भालू 2013 में ही विलुप्त हो गए थे। मड़िहान एवम चुनार वन प्रभाग में भालूओं की संख्या में सबसे ज़्यादा गिरावट दर्ज की गयी है जिस के लिए पहाड़ी क्षेत्र में चल रहे खनन, जंगल की कटाई एवं एनेक तरह के अतिक्रमण को ज़िम्मेदार माना जा सकता है जिससे भालूओं के आवास स्थानों को अत्याधिक विघ्न उतपन्न हुई है। भालू पहाड़ी जंगलों एवम् एकांत पसंद करता है एवम् इंसानों से दूरी बनाये रखता है। ऐसे में जंगलो का सिमटना, छोटे छोटे टुकडों में बटना एवम् घनत्व कम होना आदि समस्याओं के कारण मिर्जापुर के वनों में भालू समेत कई जानवर असुरक्षित महसूस कर रहे है और साल दर साल इनकी संख्या क्रमशः कम होती जा रही है। ऐसे में इंसान और भालूओं के बीच टकराव की स्थिति भी बड़ सकती है।
पटहरा वन क्षेत्र से सटे लेढुकि गाँव के रहने वाले 35 वर्ष के बबलू ने बताया कि भालू इंसान मुठभेड पिछले 5 साल से ही सर्वाधिक होने लगे है और उससे पहले कभी भालू गाँव में नहीं आते थे। लेढुकि के ही निवासी 55 वर्षीय प्रयाग ने बताया कि जंगल अब पहले जैसे जीवनदायिनी नहीं रहे है एवम् फलदार वृक्ष अब बचे ही नहीं है। उन्होंने यह भी बताया कि बांस के जंगलों में आग जल्दी पकड़ता है और जंगलों को फिर से बहाल करने के लिए अनार, आम, इमली, महुआ जैसे पेड़ लगाया जाए। इससे जहां जंगल के आसपास रहने वाले ग्रामीण पेड़ नहीं काटेंगे और फलों से अपना पेट पाल लेंगे वहीँ जानवरों के लिए भी पर्याप्त भोजन जंगल में ही मिलेंगे।
पर्यावरणविद् देबादित्यो सिन्हा ने बताया कि भालू, चिंकारा, काला हिरण समेत कई अनूसूचित प्रजाति के जानवरों का मड़िहान, सुकृत, पटेहरा, ड्रमंड गंज एवं अन्य वनों में प्राकृतिक आवास है जिनका संरक्षण करना राज्य सरकार का संवैधानिक कर्तव्य भी है। मिर्ज़ापुर के जंगलों को रिज़र्व फ़ॉरेस्ट के श्रेणी से अभ्यारण्य, राष्ट्रीय उद्यान या बायोस्फेयर रिज़र्व में तब्दील करने की मांग की गयी है। मिर्ज़ापुर के प्राकृतिक इतिहास को भू माफिया और उद्योगपतियों के मुनाफे के लियर भेंट कतई नहीं चढ़ने दिया जा सकता और जंगलों पर हक़ सिर्फ और सिर्फ पेड़ों, जानवरों एवम् जंगलों पर निर्भर समुदायों का है जिसके संरक्षण के लिए राष्ट्रीय एवम् अंतर राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास किये जाएंगे।